रवि सिन्हा, रांची: झारखंड का प्रकृति से, प्रकृति का संगीत से, और संगीत का वाद्ययंत्रों से गहरा नाता रहा है। झारखंड के लोकपर्व और सामाजिक संस्कार तो इनके बिना बिल्कुल ही अधूरे हैं। यही कारण है कि झारखंड में परंपरागत वाद्ययंत्रों की एक लंबी श्रृंखला है। यहां की संस्कृति और सामाजिक क्रियाकलापों में इनका विशेष स्थान तो है ही, रोजगार की दृष्टि से भी ये काफी महत्वपूर्ण हैं। जरूरत के हिसाब से समय-समय पर इनकी संरचना में थोड़ा बदलाव जरूर आया है लेकिन यह भी सच है कि किसी भी दौर में इसके महत्व और मांग में कमी नहीं आई। वाद्ययंत्रों के विशेषज्ञों का मानना है कि राज्य में करीब पांच हजार लोग पारंपरिक वाद्ययंत्र बनाने के काम में जुटे है। सरकार यदि इन्हें थोड़ी सी तकनीक आधारित प्रशिक्षण और बाजार की व्यवस्था करने में मदद करे, तो इसे रोजगार का बड़ा सेक्टर बना सकती है।
पारंपरिक संगीत का गढ़ झारखंड
सदियों से झारखंड के लोग ढोल, नगाड़ा, बासुरी, केंदरी, तबला, एकतारा, टूईला, ढाक, घन वाद्य, धमसा, भुआंग, मदनभेरी, मांदर, सानाई और सिंगा वाद्य यंत्र समेत संगीत के अन्य पारंपरिक यंत्रों को बनाने में जुटे है और अभी इन वाद्य यंत्रों को बनाकर कलाकार किसी तरह से अपनी आजीविका चला रहे है। परंतु राज्य सरकार से सहायता मिलने से पारंपरिक वाद्ययंत्र बनाने में जुटे कलाकारों के जीवन स्तर में बड़ा सुधार आ सकता है। पारंपरिक वाद्य यंत्रों को बनाने में जुटे परिवारों का कहना है कि यह निर्माण कार्य वर्षा से कई दशकों से चलता आ रहा है। उस दौर मे भी, जब सीमित संसाधन थे... लोगों ने लकड़ी, बांस, मिट्टी जैसे सुलभ साधनों से कई वाद्ययंत्रों का निर्माण कर लिया और समय के साथ इनकी महत्ता बढ़ती ही गई।
कलाकारों की मांग
रांची के लापुंग क्षेत्र में ढोल और मांदर बनाने में जुटे कलाकार बताते है कि सरहुल और करमा पर्व पर उनके वाद्ययंत्रों की बिक्री अच्छी होती है, लेकिन इसे बनाने में काफी समय लगता है, इसलिए वे वर्षभर इसे बनाने में जुटे रहते हैं। हालांकि समय-समय पर इसकी बिक्री भी होती रहती है। वहीं इन वाद्य यंत्रों को बनाने में जुटे कलाकार यह भी बताते है कि यह कला उन्हें अपने पूर्वजों से मिली है और यह कला ही उनके लिए रोजी-रोजगार का साधन बना है।
'कमाई से ज्यादा संस्कृति को बढ़ावा देना मकसद'
छोटानागपुर और संतालपरगना की एक बड़ी आबादी ने वाद्ययंत्रों के निर्माण को अपना पेशा बना लिया और आज भी यह इनकी आजीविका का प्रमुख साधन है। इन अलग-अलग वाद्ययंत्रों का इजाद कब और कहां हुआ , इस पर तो एक राय नहीं है। लेकिन, इसके निर्माण से जुड़े लोगों के लिए यह पुश्तैनी पेशा है, जिसे नई पीढ़ी आगे बढ़ा रही है। झारखंड के कई लोक कलाकारों ने दुनियाभर मे ख्याति अर्जित की है। वाद्ययंत्रों के निर्माण मे लगे लोगों के लिए इस परंपरा को आगे बढ़ाना ही जीवन का ध्येय है। जिसे नफा-नुकसान की चिंता किए बगैर ये आगे बढ़ाए जा रहे हैं।
from न्यूज़ - वीडियो - Navbharat Times https://ift.tt/3pAmsA8
No comments:
Post a Comment